अपने हाकिम की फ़क़ीरी पे तरस आता है,
जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे।।
राहत इन्दोरी
सलामत मेरा सरमाया कभी रहने नहीं पाता
न छीने वो तो कोई एक्स वाई छीन लेता है।।
कमाई छोटे अफ़सर भी किया करते हैं लाखों में
मगर सब से बड़ा अफ़सर कमाई छीन लेता है।।
ज़फर कमाली
ता-हद्द-ए-नज़र शोले ही शोले हैं चमन में
फूलों के निगहबान से कुछ भूल हुई है।।
जिस अहद में लुट जाए फ़क़ीरों की कमाई
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है।।
सागर सिद्दीकी
चोर अपने घरों में तो नहीं नक़्ब लगाते
अपनी ही कमाई को तो लूटा नहीं जाता।।
औरों के ख़यालात की लेते हैं तलाशी
और अपने गरेबान में झाँका नहीं जाता।।
मुज़फ्फर हनफ़ी
©संकलन: #रबीअ_बहार
अदीब {A Poetry Weblog }
बरेली के शायरों और कवियों की चौपाल
मेरे बारे में .............

- Bahaar Bareilvi
- Bareilly, Uttar Pradesh, India
- नाम: एम्. रबीअ 'बहार' सम्प्रति: शिक्षक (बेसिक शिक्षा विभाग, उ प्र.) पत्रकारिता व मल्टीमीडिया शिक्षक, स्वतन्त्र पत्रकारिता।
Thursday, November 9, 2017
नोटबन्दी_से_सम्बंधित
Monday, October 30, 2017
सर्दी का मौसम और शायरी
#सर्दी_का_मौसम ग़ज़ल में मौसम का असर देखिये। कुछ खूबसूरत अशआर... तुम तो सर्दी की हसीं धूप का चेहरा हो जिसे देखते रहते हैं दीवार से जाते हुए हम।। नोमान शौक़ सर्द रात अपनी नहीं कटती कभी तेरे बग़ैर ऐसे मौसम में तो और आग लगाती है हवा।। शहज़ाद अंजुम मौसम है सर्द-मेहर लहू है जमाव पर चौपाल चुप है भीड़ लगी है अलाव पर।। अहसान दानिश तिरे बुने हुए स्वेटर की धूप याद आई तो और बाद-ए-ज़मिस्ताँ अकड़ अकड़ के चली।। कहाँ हो आओ कि है सर्द शब का पहला पहर ख़रीद लेते हैं मिल कर करारी मूंगफली।। लिहाफ़ बाँटने वालो, हैं सर्दियाँ सब की मुरारी-ला'ल हो जौज़फ़ हो या ग़ुलाम-अली।। मन्नान बिजनोरी बर्फ़ गिरती है जिन इलाक़ों में धूप के कारोबार चलते हैं।। हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के मूड होता है तब निकलते हैं।। सूर्य भानु गुप्त सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात सर्दी से इक परिंदा दरीचे में मर गया।। अतहर नासिक गर्मी लगी तो ख़ुद से अलग हो के सो गए सर्दी लगी तो ख़ुद को दोबारा पहन लिया।। बेदिल हैदरी अभी तो सर्दियों का दौर होगा फ़ज़ा रोना था जितना रो चुकी है।। दिनेश नायडू ©संकलन:रबीअ बहार
Thursday, October 26, 2017
उर्दू ग़ज़ल में चाय की चर्चा
दर-अस्ल उसको फ़क़त चाय ख़त्म करनी थी
हम उसके कप को सुनाते रहे ग़ज़ल अपनी
~ जुबैर अली ताबिश
छोड़ आया था मेज़ पर चाय
ये जुदाई का इस्तिआरा था
~ तौकीर अब्बास
इतनी गर्मजोशी से मिले थे,
हमारी चाय ठंडी हो गई थी।
~ Khalid Mehboob
बहकते रहने की आदत है मेरे कदमो को,,
शराब खाने से निजलूं के चाय खाने से।।
~ राहत इंदौरी
कुछ चलेगा जनाब, कुछ भी नहीं
चाय, कॉफी, शराब, कुछ भी नहीं
~ 'अना' क़ासमी
ख्वाहिशें कल हुस्न की महमान थीं,
चाय को भी नाश्ता कहना पड़ा।
~ जुबैर अली ताबिश
चलो अब हिज़्र के किस्सों को छोड़ो
तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है
~ ज़ुबैर अली ताबिश
एक गर्म बहस चाट गई वक्ते मुकर्रर,
मुद्दे जो थे वो चाय के प्यालों में रह गए।
~ फानी जोधपुरी @ Fani Jodhpuri
कल के बारे में जियादा सोचना अच्छा नहीं
चाय के कप से लबों का फासला है जिंन्दगी
~ विजय वाते
महिने में किसी रोज कहीं चाय के दो कप,
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है
~ अना क़ासमी
Monday, May 14, 2012
दिलकश बदायूँनी की ग़ज़लें
एक संजीदा तबियत को हँसाने के लिये,
मुस्कुरा भी दो किसी के मुस्कुराने के लिये।।
आप खँजर तोलिये, गर्दन उड़ाने के लिये,
दिल की रग-रग है परेशां ख़ूँ बहाने के लिये।।
इत्तफ़ाक़न आ गयी थी, मेरे होंटों पर हँसी,
इक ज़माना चाहिए फिर मुस्कुराने के लिये।।
दोस्ती ही, ख़ूने-नाहक़ के लिये काफ़ी नहीं,
आस्तीं भी चाहिए खँजर छुपाने के लिये।।
दिल में गुंजाइश हो तो दुनिया सिमट आये,
दिल में गुंजाइश भी है? दुनिया बसाने के लिये।।
दौरे-हाजि़र में तो कुछ चेहरों पे शादाबी भी है,
लोग तरसेंगे कभी, ख़ुशियाँ मनाने के लिये।।
2.
ज़ख़्म सब खिलने लगे, दिल ने दुखन महसूस की,
रूह ने सीने के अन्दर, इक घुटन महसूस की।।
फिर तुम्हारी यादों के काँटों ने लीं अँगड़ाइया,
फिर मेरे दिल ने कोई गहरी चुभन महसूस की।।
बामों-दर करती हुई रोशन मकाने-फि़क्र के,
दिल के आँगन में उतरती इक किरन महसूस की।।
हमने ज़ौके़-शायरी से मुन्सलिक हर वारदात,
इक उरूसे-शब, नवेली इक दुल्हन महसूस की।।
दो घड़ी को लब से लब, बाहों से बाहें मिल गयीं,
दो घड़ी को साँसों ने, साँसों की तपन महसूस की।।
रुक गये हम उनकी यादों के शजर की छाँव में,
इश्क़ के सहरा में ‘‘दिलकश’’ जब थकन महसूस की।।
Sunday, May 13, 2012
प्यार की तितली के पीछे थे

तकिये से खुशबू आती है/
यादों के आंसू महके थे/
दिल के खंडहर देते हैं गवाही /
इन महलों में तुम रहते थे /
प्यार की तितली के पीछे थे /
हम शायद छोटे बच्चे थे/
ज़ुल्फ़ बरहम मुर्तइश लब और निगाहें पुर खुमार/
कितने हरबों से बचाते हो गए उगाये उन का शिकार/
कौन कहता है वफ़ा के मिट गए नक्शो निगार/
दिल के वीराने में अब भी हैं वफाओं के मज़ार/
रबी बहार
‘‘चाँद तन्हा है’’ ग़ज़ल संग्रह से
वह रब मेरे ख़्आबों को ताबीर में लाना भूल गया,
लगता है जैसे वो मेरी तकदीर बनाना भूल गया।।
हमतो बना के बैठे थे इक अपने नशेमन का नक़्शा,
मगर वो वक़्ते-ऐन हसीं तामीर कराना भूल गया,
सज़ा मौत की दी उसने पर घायल करके छोड़ गया,
अजब शिकारी था वो क़ातिल तीर चलाना भूल गया।।
रुख़े-सनम को बसा के आँखों में वो वापस आया था,
कैसा मुसव्विर था फिर भी तस्वीर बनाना भूल गया।।
कभी न पूरी होने पायी इस दिल की कोई हसरत,
वक़्त ‘नाज’ रांझे से उसकी हीर मिलाना भूल गया।।
‘‘चाँद तन्हा है’’ ग़ज़ल संग्रह से
लगता है जैसे वो मेरी तकदीर बनाना भूल गया।।
हमतो बना के बैठे थे इक अपने नशेमन का नक़्शा,
मगर वो वक़्ते-ऐन हसीं तामीर कराना भूल गया,
सज़ा मौत की दी उसने पर घायल करके छोड़ गया,
अजब शिकारी था वो क़ातिल तीर चलाना भूल गया।।
रुख़े-सनम को बसा के आँखों में वो वापस आया था,
कैसा मुसव्विर था फिर भी तस्वीर बनाना भूल गया।।
कभी न पूरी होने पायी इस दिल की कोई हसरत,
वक़्त ‘नाज’ रांझे से उसकी हीर मिलाना भूल गया।।
‘‘चाँद तन्हा है’’ ग़ज़ल संग्रह से